Tuesday, October 8, 2024

शोधकर्ता डॉ राम अवतार

  कौन हैं राम अवतार

डॉ राम अवतार, राम जी के वनगमन स्थलों को एक सूत्र में पिरोने वाले एक अद्भुत  शोधकर्त्ता हैं। भारत सरकार के आयकर विभाग के वरिष्ठ अधिकारी पद से अवकाश प्राप्त डॉ रामअवतार पिछले 48 वर्षों से लगातार रामजी के तीर्थों पर शोध कर रहे हैं ।

शोध निष्कर्ष के रूप में आपने भगवान राम की यात्राओं से संबंधित 290 स्थलों को त्रेतायुगीन स्मारक तीर्थ के रूप में सुस्थापित किया है । ये स्थल मुख्य रूप से दो वर्ग में चिह्नित हुए हैं । आपने पहले वर्ग में मुनि विश्वामित्र के साथ तत्कालीन अयोध्या से मिथिला अर्थात वर्तमान उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के जगत विख्यात अयोध्या से नेपाल के जनकपुर तक तथा जनकपुर से अयोध्या के बीच कुल 41 स्थानों को रखा है । दूसरे वर्ग में श्रीराम वनगमन तीर्थ के रूप में 249 स्थल को चिह्नित किया है । इस तरह कुल 290 स्थल रामजी के ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में स्वीकार किये गये हैं ।

आपकी संस्तुति पर भारत की केन्द्र सरकार और विभिन्न प्रांतों के पर्यटन मंत्रालय के मानचित्र में इन तीर्थों को दर्शाया गया है और इनके विकास की योजनायें बनायी गयी हैं ।

हरियाणा के दड़ौली गांव के प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय जगदीश शर्मा के पुत्र डॉ रामअवतार त्रेतायुग में अवतरित मर्यादा पुरुष भगवान श्रीराम को भारत वर्ष का इतिहास पुरुष साबित करने वाले अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान हैं । 72 वर्ष की आयु में युवकोचित ऊर्जा से भरेपूरे रामअवतार संप्रति भारत सरकार द्वारा गठित रामायण सर्किट के अध्यक्ष हैं । वे श्री राम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास के महामंत्री के रूप में रामजी के तीर्थों के प्रचार प्रसार में संलग्न हैं ।

बालपन में ही जगी रामजी के प्रति लौ

आप जब छोटे से थे तभी रामजी और साधु संतों के प्रति एक लगाव था । परिवार के वृद्ध जनों के अनुसार अबोधावस्था में अनेकों बार आप कहते कि मुझे साधु बाबा दिखाई दे रहे जबकि आस पास कोई नहीं होता । अन्तरमन की पुकार पर आप घर से बाहर भागने लगते कि बाबा बुला रहा है ।

विशेष रूप से रामजी के वनगमन प्रसंग को अपनी ताई, मां बहनों से लोकगीतों में सुनकर आप फूट फूट कर रोने लगते । रामजी और सीताजी की करुण गाथा  सुनाते  हुए वे  महिलाएं अक्सर सिसकने लगतीं और उन्हें रोता देख कर बाल राम अवतार की आंखो से भी आंसू की बुन्दें लुढ़कने लगतीं।

डॉ रामअवतार के परिवार में एक भाभी थीं । भाभी जी का नाम आनन्दी देवी था । वे अपने समय की खूब पढ़ी लिखी और प्रबुद्ध महिला थीं । भाभीजी नियमित रूप से रामायणजी का सस्वर पाठ करतीं । उनके मधुर पाठ को सुनने अनेक लोग आया करते । अपने बालपन में राम अवतार जी को इन्हीं भाभी से रामजी की कथा सुनने और समझने का अवसर मिला ।

       जब  कुछ  बड़े  हुए  तो रोजी रोटी के लिए घर से बाहर निकले। आयकर विभाग में पहले एक छोटी सी नौकरी लगी और दाल रोटी का इंतजाम हो गया। नौकरी बेहद छोटी थी एक कैजुअल के रूप में पानी पिलाने वाले सहायक पद  पर  बहाल  हुए  थे रामअवतार।  मगर वे ना तब किसी काम को छोटा समझते थे और ना ही आज। बड़ी लगन के साथ अपने हर काम को अंजाम देने की आदत  बचपन  से  लगी  हुई है।

  आयकर विभाग में आजीविका   

   भारत सरकार के आयकर विभाग में आपको ऐसे अधिकारियों का सानिंध्य मिला जिन्होंने जीवन में छोटी नौकरी से ऊपर उठ कर कुछ और करने की प्रेरणा दी। अधिकारियों का सहयोग पाकर आप नौकरी के साथ पढ़ाई कर अपनी योग्यता बढ़ाने लगे। पहले दसवीं पढ़ के नौकरी में आए थे राम अवतार। आयकर विभाग में नौकरी के साथ पढ़ने का सिलसिला  शुरु  हुआ तो क्रमिक रूप से स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री के साथ आपने शोध कार्य के साथ डॉकटर ऑफ फिलास्फी यानि पीएचडी की उपाधि प्राप्त की ।

शैक्षिक योग्यता बढ़ने के साथ विभाग में प्रोन्नत होने के अवसर भी बनने लगे । अर्हता प्राप्त होने पर परीक्षा के माध्यम से आप आयकर निरीक्षक पद हेतु चयनित हुए । लेकिन आपकी अभिरूचि राजभाषा के प्रति अधिक थी । अतः आपने निरीक्षण कार्य के स्थान पर आयकर विभाग में राष्ट्रभाषा के प्रयोग को बढ़ावा देना उचित समझा । आयकर विभाग की सबसे निचली सीढ़ी में पानी पिलाने वाले सहायक से क्रमिक रूप से ऊपर उठ कर सहायक निदेशक  पद  से आपने अवकाश प्राप्त किया।

 अपने अध्ययन के दौरान यह जानने कि धुन परवान चढ़ी कि वाकई राम जी हमारे इतिहास पुरुष हैं या फिर केवल मिथक कथा के पात्र।

       जितने लोगों से पूछा उतनी अलग जानकारियां मिलीं। हरि अनंत हरि कथा अनंता ! रामजी के अनेक कल्पों में अनेक जन्म लेने की कथा सुन कर तो मन चकरा गया कि क्या  वास्तव में  ऐसा  संभव  हुआ  होगा ? मन में जिज्ञासा बनी रही। रामजी को और रामजी की संस्कृति को उनकी लीलाभूमि के साथ जानने की लालसा बनी रही।

शोध प्रबंध के लिए सवैतनिक अवकाश

  आयकर विभाग में   काम   करते  हुए  राम अवतार ने वनवासी राम और लोक संस्कृति पर उनका प्रभाव विषय पर शोध अध्ययन करना चाहा। उस समय परिस्थितियां जैसी थीं उसमें राम के नाम पर शोध के लिए सरकारी अनुमति मिलना तो  दूर  राम के नाम को लेकर ही संशय और भ्रम पैदा करने वालों को इस अध्ययन की कोई उपयोगिता समझाना मुश्किल था। लेकिन राम जी कृपा से  दो वर्षों के लिए सवैतनिक अवकाश का  दुर्लभ योग बना।

शोधकर्त्ता राम अवतार

भारत सरकार के मानव संसाधन विकास ने वनवासी राम और लोक संस्कृति पर उनका प्रभाव विषय पर शोध योजना को स्वीकृति दी और राम अवतार अपने काम में लग गए। भारत वर्ष में शोध की जो दशा और दिशा है उसमें यह परियोजना एक डिग्री और एक पुस्तक से अधिक की हैसियत नहीं रखती थी। लेकिन रामअवतार जी के लिए यह योजना उनके सपनों को साकार करने के लिए राम जी की कृपा थी।

   वे रामजी के वनगमन स्थलों की सूची की खोज  के लिए ग्रंथों को ढूंढ़ ने लगे । विद्वानों से  मिलने लगे। राम कथा मर्मज्ञों, संतो- महात्माओं के दर्शन करने लगे। हर विद्वान के पास अपने सिद्धांत और अपने निष्कर्ष थे।

वामपंथी इतिहासकारों ने तो एक षडयंत्र के तहत भारतीय इतिहास को दूषित किया ताकि वे अपने तुच्छ स्वार्थ की पूर्ति कर सकें।।

राम जी के वास्तविक कालखण्ड को लेकर वामपंथी इतिहासकारों ने जो भ्रम फैलाया उसका डटकर विरोध करने और सत्य तथ्य के प्रसार के लिए डॉक्टर राम अवतार सदैव आगे आये।

दूसरी ओर संतों के पास अपनी – अपनी कथाएं थीं । लेकिन  कोई भी यह बताने को तैयार नहीं था कि अयोध्याजी से रामजी निकले तो कहां कहां होकर रामेश्वरम  तक  पहुंचे  और इस दौरान उन्होंने क्या किया।

    दरअसल अयोध्याजी से रामेश्वरम तक फैले रामजी के वनगमन स्थलों को एक जन्म में कोई अकेला व्यक्ति बिना रामजी की कृपा के देख भी नहीं सकता। यह नहीं कि राम जी के त्रेता युग में अवतरण के बाद इन तीर्थों के बारे में लोगों को जानकारी नहीं थी। जानकारी तो थी लेकिन ये सभी स्थल एक  दूसरे से संबंधित हो सकते हैं इस पर किसी की दृष्टि नहीं गयी थी। इन्हें एक सूत्र में पिरोने की आवश्यकता किसी को नहीं पड़ी थी।

 राम अवतार इसी लिए एक  अद्भुत  शोधकर्ता हैं कि उन्होंने एक ऐसा काम किया है जो इस बात कि पुष्टि करता है कि श्री राम वास्तव में हमारे इतिहास पुरुष हैं।

   राम पार ब्रह्म परमेश्वर भी हैं लेकिन त्रेता युग में मानव देह लेकर अवतरित  हुए  और लोक कल्याण  के लिए उन्होंने जो योगदान अपनी पीढ़ी को दिया उससे बाद की पीढ़ी के लिए वे साक्षात नर देह में नारायण के अवतार  के रूप  में पूजित  हुए । उनसे संबंधित लीलाभूमि में उनके आगमन की स्मृति आज भी  बनी  हुई है। इस स्मृति के सहारे उन्हें हम अपना साक्षात पूर्वज मान सकते हैं।

   राम अवतार ने रामजी की लीला भूमि को  ढूंढने का प्रयास किया। जब उन्हें एक एक कर लीला भूमियां मिलनी प्राप्त  हुईं तो उनसी जुड़ी कथा सुन कर राम के रामत्व को समझ पाने की दृष्टि खुली और जब आंखें खुल जाती हैं तो व्यक्ति सोया नहीं रह सकता।

     राम जी की लीलाभूमियों को एक सूत्र में पिरोकर राम अवतार अब इन्हें प्रचारित प्रसारित करने में लगे हैं ताकि श्री राम को अपना आदर्श मानने वाले लोग इन स्थानों की महिमा जानकर अपना जीवन धन्य कर सकें।  

सद्गुरुओं की कृपा

 राम अवतार सवैतनिक अवकाश मिलने के बाद जब अपने अभियान पर पूर्णकालिक शोधकर्त्ता के रूप में रामजी की लीलाभूमि को खोजने के लिए निकले तो इनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था। भ्रमित करने वाले अनेकों विद्वान थे मगर वास्तविक राह दिखाने वाला कोई नहीं।

ऐसे में प्रभुकृपा से गोरखपुर के जगतविख्यात गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ जी ने रामजी के पथ पर चलने के ठोस संकेत सूत्र दिये । अयोध्याजी के एक अनाम संत ने साइकिल यात्रा की प्रेरणा दी ।चित्रकूट जिले में मां मंदाकिनी के तट पर थके हारे निराश  बैठे  हुए  थे तो अक्सर चुप रहने वाले और मौनी बाबा के नाम से प्रख्यात एक तपस्वी ने उन्हें कहा  —

 “ तू जिसकी तलाश कर रहा है वह बिना अपने अंदर विश्वास जगे नहीं मिलता। जब तू रामजी के वनगमन स्थलों को  ढूंढ रहा  है तो बिना वन- वन भटके तुझे कैसे मिलेंगे ये स्थान। जिनसे तू पूछ रहा है उन्हें खुद नहीं मालूम तो वे तुझे क्या बताएंगे ? किताबें पढ़ कर या तोता रटंत की तरह कथा कह सुन कर वनगमन स्थलों के बारे में जानकारी नहीं मिल सकती क्योंकि ना तो वाल्मीकि बाबा ने और ना ही किसी अन्य संत महात्मा या लेखक ने इन सभी के बारे में  कुछ भी खोल कर लिखा है। जो जानकारियां किताबों में हैं,  वे तो संकेतों में हैं और इन संकेतो को समझना तेरे या किसी विद्वान के वश का खेल नहीं।”

सद्गुरु का उपदेश

    “तुझे राम के वनगमन स्थलों को जानना है तो वनवासी वेश धारण कर, हनुमानजी को साथ ले और चल पड़ वनों में। तुझे राम भी मिलेंगे और राम जी के  स्थान भी । इन  स्थानों  को जान,  पहचान  और  दूसरों को भी इनसे परिचित करा।”

पासीघाट में नर्मदाजी के तट पर रहने वाले एक संत ने नर्मदा मैया की परिक्रमा की सलाह दी और मार्ग पर चलने का अभय मंत्र दिया

वन गमन पथ की खोज

ऐसे संतों का आशीर्वाद पाकर राम अवतार चल रहे हैं लगातार। वन-वन भटक रहे हैं। पुराने वन जो नगर में बदल गए …. गांव की धूल भरी सड़कें जहां रामजी के आने की याद बनाए रखने में अब नए ग्रामीणों की भी अभिरूचि नहीं…ऐसे बियाबान जहां धर्मांतरण के बाद राम जी के चरण चिन्हों की पूजा साल में बस एक बार या दो बार होती है……… और इस पूजा में भी गिने चुने  लोग  पहुंचते हैं …रामअवतार खोजते रहे…. जहां कहीं से कोई नई जानकारी मिलती ….वाल्मीकि रामायण की कसौटी पर वह स्थान वनगमन मार्ग की कड़ी बनता लगा, राम अवतार स्थान की पुष्टि के लिए बिना किसी हिचक  के  प हुंचते रहे।

       जहां कहीं आगे मार्ग अवरुद्ध दिखा….. घने बियाबान या कंक्रीटों के जंगल में कोई पुष्टि करने वाला नहीं मिला.. .. जब अपने हर प्रयास नाकाम नजर आने लगे तो संत बाबाओं को मन ही मन याद किया, हनुमान जी से गुहार लगायी और एकांत में रामधुन में लीन हो गए… रामधुन के बीच ही अचानक कोई ना कोई सूत्र निकल आया।

    तपती दोपहरी में अग्नि बाण बरसाते सूरज देव के सानिध्य में जहां कोई पेड़ झाड़ी नहीं रामअवतार चलते रहे…किसी नए स्थान की जानकारी मिलने पर किसी गांव के पास शाम  को  पहुंचे राम अवतार लोगों से पूछते रहे….. कोई पक्की जानकारी नहीं मिली……. कोई राह बताने वाला नहीं मिला …… बस ये जानकारी देने वाले मिले कि हां किसी बुजुर्ग से सुना तो है लेकिन कहां है वह स्थान मुझे नहीं मालूम। 

घने अंधकार में मिला आश्रय

    वो शाम घनी काली अंधियारी रात में बदल गई ।  सुनसान रास्ते पर अकेले गुनधुन में खड़े या रामधुन की लय में आगे बढ़ते रामअवतार को आश्रय देने वाला कोई ना कोई अनजान व्यक्ति मिल गया…… कभी कोई साधु… कहीं कोई औघड़ मिल गया  जिसके साथ रात बीती। बातें  हुईं  और रामजी के वनवास प्रसंग से जुड़ा एक नया स्थल राम अवतार जी को मिल गया।

दस्यूओं ने लूटा भी

     घने जंगलों में  अकेले  भटकते  हुए  कभी कभी दस्यु भी मिले। ऐसे डाकू जिन्होंने अपने कर्म और कर्त्तव्य के निर्वहन के लिए रामअवतार के पास मौजूद एक एक पाई और कपड़े लत्ते तक  उतरवा लिए, ये  कहते  हुए  कि जान छोड़ दे रहा  हूँ  ये  कम है क्या……..

      लेकिन जब कोई व्यक्ति अपने आप को रामजी के कारज में झोंक देता है….. हनुमानजी  को साथ  लेकर  चलता  है  और सद्गुरु  की कृपा बनी रहती है तो ऐसे कठोर डाकुओं के मन में  भी सद्बुद्धि  जगती है। ऐसे अवसर रामअवतार के शोध जीवन में अक्सर आए जब सबकुछ मायावी संपत्ति छीनने के बाद भी डाकुओं ने राम अवतारजी को ना केवल भरपेट भोजन कराया बल्कि आगे सुरक्षित जाने के लिए अपना आदमी तक साथ कर दिया जो एक सीमा  तक  प हुंचा  कर वापस लौट जाते रुंधे गले से  यह कहते  हुए  कि “ भैया क्या करूं मेरे रामजी ने ऐसे कर्म दिए जिससे आज यहा दशा है जरा अपने रामजी से कहना कि हमें मुक्ति दिलाएं ! ”

    तो इस तरह चलती रही शोधकर्ता रामअवतार की खोज यात्रा। और अब भी चल रहे हैं राम अवतार। क्या पता कुछ और नए स्थल मिल जाएं……

शोध में कितने वनवास स्थल मिले

   इस तरह रामजी के वन प्रसंग से संबंधित अगली कड़ी मिलती चली गयी।

हर नई कड़ी  से संबंधित कथा  एक स्थान से  दूसरे  स्थान को जोड़ती रहीं।

अब तक एक एक कर वनवास प्रसंग से जुड़े 249 तीर्थ स्थल एक सूत्र में आबद्ध हो चुके हैं जबकि अयोध्या से मिथिला यात्रा से संबंधित 41 स्थान तीर्थ एक सूत्रों में पिरोये गये हैं ।

कितने प्रामाणिक हैं ये स्थान

 रामजी से संबंधित ये स्थान कितने प्रामणिक हैं यह सवाल अक्सर पूछा जाता है। इसे हमें ठीक से समझना चाहिए। उदारण स्वरूप लंका अभियान के लिए पुल बनाया गया यह सभी जानते हैं। लेकिन इस पुल के निर्माण के प्रमाण या इसे मानवीय प्रयास साबित करने के लिए हमारे पास अभी उपलब्ध तकनीक सक्षम नहीं हैं ।

  दरअसल हर तकनीक, ज्ञान आधारित एक परिवर्तनशील प्रणाली है जिसकी स्वयं की सत्ता हर पल संदिग्ध बनी रहती है। हमारे समय के अनेक महान वैझानिकों के सिद्धांत जिनकी मान्यता लंबे अरसे तक बनी रही, जिन सिद्धांतों पर आधारित उपकरण और तकनीक हम मानवों के लिए उपयोगी और कार्यशील रहीं पिछले सौ दो सौ साल में पूरी तरह बदल गई हैं।

   आने वाले सौ दो सौ सालों में आधुनिक विज्ञान के प्रयोगों से हमारे समय में अभी प्रयोग हो रही तकनीकें कितनी उपयोगी बनी रहेंगी और इनका चलन कब तक बना रहेगा , यह कोई नहीं जानता। संभव है तकनीक आधारित अनेक प्रणालियां पूरी तरह बदल जाएं। और हमारे बच्चों के बच्चों की पीढ़ी की तकनीक हमसे पूरी तरह अलग हो।

   एक उदाहरण लें। आप में से अधिकांश लोगों ने लिखने के लिए कभी ना कभी पेन या पेन्सिल का उपयोग जरूर किया होगा। लेकिन यदि धरती के हर मानव की शिक्षा कंप्यूटर के जरिए होने लगे तो पूछिए अपने आप से सवाल कि पेन या पेन्सिल की कितनी उपयोगिता रह जाएगी। बस यह मान लें कि आने वाले समय में हर शिक्षार्थी केवल कंप्यूटर से लिखेगा- पढ़ेगा तो कहां जाएंगे पेन्सिल, पेन और लेखन से संबंधित सभी उपकरण ?

     उदाहरण लें  अली बाबा की खुल जा सिम सिम कहानी

दुनिया में अब दरवाजा खुलने के लिए खुल जा सिम सिम ध्वनि का प्रयोग आज कई घरों में हो रहा है। आपकी आवाज को सुन कर या ताली बजाकर संदेश को समझने वाले उपकरण हमारे घरों में मौजूद हैं। जबकि आज से सौ साल पहले आवाज सुन कर गुफा खुलने की तकनीक केवल काल्पनिक कथा मानी जाती थी।

  इसी तरह आप कई  उदाहरण आप  खुद अपने  अनुभव  से  ढूंढ सकते हैं। 

 परिष्कृत ज्ञान से अति सूक्ष्म तकनीक का जन्म

          हर तकनीक ज्ञान आधारित एक परिवर्त्तनशील प्रणाली है जो हर युग में हम मानवों की आवश्यकता के अनुसार थोड़ी थोड़ी बदलती रहती है। इस बदलाव को हम कभी हम समझते हैं और कई बार बिना समझे भी इसका लाभ उठाते रहते हैं।  

   आज हम कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं । स्मार्ट मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन हम में से कितने लोग इस तकनीक को जानते हैं ।

    ये सभी उदाहरण ज्ञान आधारित भौतिक तकनीक के हैं। इसमें तकनीकी  भौतिक ज्ञान जितना परिष्कृत होता है उतना ही सूक्ष्म होता चला जाता  है और भौतिक ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच कर  ज्ञान और ज्ञानी दोनों का भेद मिट जाता है। ऐसे ज्ञानी का शरीर स्वयं अपने आप में ज्ञान , मंत्र, यन्त्र और उपकरण के रूप में बदल जाता है। इसी लिए ज्ञान के शिखर पर विराजमान लोग इस अति सूक्ष्म ज्ञान को केवल स्मृति के माध्यम से सुरक्षित रखते हैं ताकि अनधिकारी  तक यह  नहीं  पहुं चे और कदाचित  पहुंच भी जाए तो माया के प्रभाव में उसका ऐसा पतन हो कि वह आगे इसका  दुरु पयोग करने  में समर्थ नहीं हो।

   ऐसे ज्ञानी ऋषि परंपरा के लोग त्रेता युग में एक दो नहीं बल्कि अनेक थे जिनके सहयोग से कई  निर्माण  उस समय  में  हुए  और उनके ठोस स्थूल अवशेष आज भी हैं लेकिन इनको प्रमाणित वही कर सकता है जिसके पास वैसा ही ज्ञान आज भी हो।

   हां इनकी स्मृतियां कथा रूप में आज भी मौजूद हैं जिन्हें सनातन भारतीय संस्कृति के लोगों ने युग युग से संजो कर रखा है। इसीलिए रामजी से जुड़े प्रसंगों की याद यथावत हमारे यहां सुरक्षित है।

आज भी हैं सूक्ष्म ज्ञान के जानकार ऋषि परंपरा के लोग

      अब रह जाता है सवाल कि क्या ऐसे ज्ञानी कोई ऋषि आज की तारीख में हैं ? इन पंक्तियों के रचनाकार का जवाब है – हां हैं  । दूसरा  सवाल है तो फिर आगे आकर वे इस निर्माण और इससे संबंधित प्रमाण को साबित क्यों नहीं करते ? इसका सीधा सा जवाब है कि जिनके मन में अश्रद्धा है, जो शंकालु और कुतर्की हैं उनके सामने इस ज्ञान का प्रदर्शन करने की ना तो अनुमति नहीं है और ना ही आवश्यकता । दरअसल जिन्हें इस ज्ञान का थोड़ा सा भी अंश मिला है यदि वे इस ज्ञान का उपयोग अपने लाभ, लोभ, मोह, क्रोध या किसी अन्य कारण से श्रद्धालु या अश्रद्धालु के बीच  प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें इसका भयंकर दंड मिलता है।

     इस दंड से बचने और अपने तप तथा अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में लगे ऐसे ज्ञानियों के लिए रामजी के समय के निर्माण को प्रमाणित करने के लिए या अपने ज्ञान को चमत्कार के रूप में दिखा कर आधुनिक समय के वैज्ञानिकों या श्रद्धालु या अश्रद्धालु के सामने आकर प्रदर्शन करने का कोई औचित्य ही नहीं है। जिन्होंने ऐसा प्रदर्शन एक सीमा से आगे बढ़कर किया वे अपने जीवन काल में ही पतन के शिकार  हु ए हैं। ऐसे एक नहीं अनेको उदाहरण हमारी आंखों के सामने हैं।

      हां जो श्रद्धालु हैं और जिनके मन में राम जी के लिए आस्था है, अपनी सनातन संस्कृति में विश्वास है, वे अपने मन में गहरी निष्ठा रखें तो उन्हें अपने जीवनकाल में ऐसे ज्ञानियों का सानिध्य भी मिलता है और उनके ज्ञान का समुचित लाभ भी मिलता है क्योंकि लोक कल्याण के लिए इस ज्ञान का सीमित प्रयोग हर युग में होता आ रहा है।  संभव है आप में से कई श्रद्धालुओं को इसका अच्छा खासा अनुभव हो।

  इसलिए रामजी के  समय  की लीला भूमियों  को  ढूं ढने की लगन जब रामअवतार के मन में जगती है  तो राम  जी को  जपने  वाले  सद्गुरुओ में से एक मौनी बाबा साक्षात सामने आकर आगे का ना केवल रास्ता बताते हैं बल्कि यह व्यवस्था भी कर देते हैं गहन अरण्य में अकेले भटकते रामअवतार को वन्य  प्राणी  या दस्यु कोई नुकसान  नहीं  पहुंचाए।

  गुरु शिष्य परंपरा से सदैव सुरक्षित रहा है अति सूक्ष्म परिष्कृत ज्ञान  

सबसे लंबी आयु स्मृतियों की ही होती है। परिष्कृत ज्ञान का सूक्ष्मतम रूप किताबों में नहीं रखा जाता । इन्हें गुरु शिष्य परंपरा से अनादि काल से आज तक सुरक्षित रखा गया है। भारत में ही नहीं बल्कि  दुनिया के सभी हिस्से में  इस ज्ञान के विविध रूप विविध गुरुओं के माध्यम से आज भी चलन में हैं

मंत्र रूप में उपलबद्ध हर ज्ञान कीलित होता है। यहां तक कि किसी भी भाषा के एक अक्षर का भी संपूर्ण अर्थ और रहस्य वही प्राप्त कर पाता है जो उसका अधिकारी होता है। अधिकारी बनने के लिए योग्यता और पात्रता की शर्तें लागू होती हैं। इसलिए मंत्र यदि मिल भी जाए , ज्ञान की एक झलक मिल भी जाए तो इस भ्रम में पड़ कर कि अब मैं अधिकारी हो गया अनेक योग्य पात्र भी अपने जीवन काल में अपात्र साबित होकर कुख्याति के साथ पतन को प्राप्त हो चके हैं। ऐसा उदाहरण आपको हर युग में मिल जाएगा। इसलिए रामायण और रामजी के काल  का प्रमाण  ढूंढते समय श्रद्धालु बन कर विचार करें तो अधिक लाभ होगा। 

    वाल्मीकि रामायण पर हम विचार करें तो इसके लिखित रूप की अखंडित मूल प्रति कहीं उपलब्ध नहीं है। कागज, कपड़े, पत्थर या धातु पत्रों पर लिखित इस ग्रंथ का मूल रूप क्या है, यह कोई नहीं जानता लेकिन इस महाग्रंथ की कथाएं बिना  क्रम  टूटे  भारत के विभिन्न भागों में उपलब्ध हैं।

  स्पष्ट है कि भारतवर्ष में ज्ञान और सत्य के अन्वेषी ऋषियों ने अपने समाज को जोड़े रखने के लिए किसी भौतिक वस्तु का सहारा नहीं लिया बल्कि इसे जनसामान्य की स्मृति में बसाए रखने के लिए कथा कहानियों और रूपकों का उपयोग किया और सूक्ष्म ज्ञान के मंत्र रूप को गुरु शिष्य परंपरा से चलन में बनाए रखा। मंत्र का प्रत्यक्ष दर्शन और इसका प्रयोग अनादि काल से आज तक यथावत जारी है। हां इसका प्रत्यक्ष लाभ किन्हें मिला है या मिलता है इस पर कोई शोध नहीं होता।

     राम अवतारजी ने रामजी के मंत्रों को मन में बसाया । गुरुओं पर विश्वास कर बिना किसी शंका के अकेले मार्ग पर निकल गए और नतीजा यह निकला कि रामजी की प्रत्यक्ष लीला से संबंधित लगभग तीन सौ तीर्थ अपने जीवन काल में एक सूत्र में पिरो डाले।   

   रामजी की याद से जुड़ी कथाएं हमारे देश के विभिन्न भू भाग में प्रचलित हैं और इन सबको एक साथ जोड़ दिया जाए तो उस घटना स्थल और  दूसरे  स्थान की घटनाओं के साथ एक तारतम्य बिठाया जा सकता है।

राम अवतारजी ने एक शोधकर्त्ता के रूप में यही तारतम्य बिठाने का प्रयास किया और रामजी की कृपा से यह प्रयास सफल  साबित  हुआ है। इस प्रयास को भारत सरकार ने भी स्वीकार किया है। रामअवतारजी की शोध यात्रा में प्राप्त स्थलों को रामजी के तीर्थों के रूप में औपचारिक मान्यता दी गयी है।

ध्यान रहे कि यह मान्यता किसी पार्टी विशेष की कृपा से नहीं दी गई है बल्कि रामअवतार जी ने जी पी एस यंत्र लेकर जिन दो सौ नब्बे तीर्थों पर शोध किया, उनकी भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारियां दर्ज की वह एक सरकारी कर्मचारी द्वारा कई वर्षों में लगातार सरकारी धन का उपयोग कर रामजी के तीर्थों के प्रामाणिक अभिलेख के रूप में स्वीकार  की गई हैं।

  इस शोध के आधार पर राम जी के तीर्थों के लिए पर्यटन सर्किट बनाते समय स्थलों को एक सूत्र में जोड़ा जा रहा है। विभिन्न राज्य सरकारों ने इन पर काम शुरु किया है। लेकिन ये काम अधूरे हैं। तीर्थों का विकास और संरक्षण तभी होगा जब व्यापक जन समूह जागरूक होगा।

वाल्मीकि के समय में उपलब्ध तकनीक से बने निर्माण के प्रमाण अभी उपलब्ध  तकनीक  से  ढूंढने के हर प्रयास के नाकाम होने के आसार अधिक हैं इसलिए काल की कसौटी पर खरे उतरे इन स्थलों के प्रमाण अपनी तकनीक के सहारे मत  ढूंढिए।

 रामअवतारजी  ने जिन स्थानों  को  ढूंढा है   एक सूत्र में आबद्ध किया है उनसे संबंधित स्मृतियों के आधार पर इन्हें प्रामाणिक माना जा सकता है।

प्रमाण के लिए स्मृति हैं सक्षम

इस परिवर्तनशील संसार में यदि स्थिर आप किसी को मानें तो यह असत्य होगा । लेकिन  स्थिर  नहीं  होते  हुए भी  सबसे अधिक लंबी सत्ता स्मृति की ही रहती है। इसलिए यादों का सहारा लीजिए  तो  आप  तथ्य  तक  पहुंच  पाएंगे।

अपने इतिहास  तक  पहुंच  पाएंगे।

उदाहरणस्वरूप आप अपनी माताजी और पिताजी को अवश्य जानते होंगे। उनके माता पिता और उनके माता पिता के बारे में भी शायद जानते हों।  लेकिन आपसे पचास पीढ़ी पहले के पूर्वज की जानकारी मांगी जाए तो आप क्या जवाब देंगे ?

यदि आप भरतवंशी हैं,  भारतीय हैं और अपने कुल, गोत्र और वंश का इतिहास जानते हैं तो इस कुल के जनक का नाम बता पाएंगे लेकिन उनके पूर्वज कौन और उनके पूर्वज कौन यह आप नहीं जानते। कोई नहीं जानता।

लेकिन क्या इस अज्ञान से हमारा मानव होना असत्य साबित हो सकता है ? …..

हम में से अधिकांश भरत वंशी अपने कुल और गोत्र को जानते हैं। इस कुल गोत्र की स्मृतियां और हमारा संपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास हमारे रामायण, महाभारत, पुराणों और अन्य ग्रंथों में  समाया  हुआ  है।  हमारा संपूर्ण ज्ञान वेदों में सुरक्षित संजोया गया है जिसे पढ़कर और जिनके अक्षरों की उपासना कर हम उस पूर्ण  ज्ञान  तक  पहुंचते  हैं जो वास्तविक विद्या और अविद्या का संगम स्थल है।

ऋषि परंपरा के लोग हर युग में रहे हैं जिन्हें संपूर्ण ज्ञान है। लेकिन ऐसे ऋषियों के दर्शन बड़े भाग से होते हैं। इनके ज्ञान का लाभ अश्रद्धालुओं को नहीं मिलता।

संभवतः ऐसे ही ज्ञानी थे मौनी बाबा जिन्होंने रामअवतारजी को रामजी के वनवास प्रसंग से संबंधित स्थलों को  वन में  भटक  कर  ढूंढ ने का ज्ञान दिया। अपने गुरु के वचन पर विश्वास कर राम अवतार इन स्थलों को एक सूत्र में बांध पाए।

वाल्मीकि, कालिदास, तुलसीदास और वर्तमान समय में इन तीर्थों में समायी रही है रामजी के यहां आने की स्मृति

यदि आप स्मृति आधारित इन स्थलों का प्रमाण समय की कसौटी पर कसना चाहें तो वाल्मीकि रामायण के काल, कालिदास के रघुवंश के काल, गोस्वामी तुलसी दास के रामचरित मानस के काल तथा हम लोगों के वर्तमान काल को एक साथ रखकर इनकी प्राचीनता और इनके तीर्थ बने होने का प्रमाण ढूंढे।

वाल्मीकि यानि अतीत के बिल्कुल पुराने त्रेता युग का काल, कालिदास यानि उपलब्ध इतिहास का लगभग डेढ़ से  दो हजार साल पुराना इतिहास , तुलसी दास यानि छह सौ साल पुराना इतिहास कहता है कि रामजी इन स्थानों पर आए। कालिदास बिना इन तीर्थों पर गए रघुवंश नहीं लिख पाते, गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमानजी की कृपा इन तीर्थों में ही पायी और रामचरित मानस लिख पाए और हमारे आपके समय में राम अवतारजी इन तीर्थों पर गए और इन सबको एक सूत्र में जोड़ पाए ।राम अवतार यदि बार बार इन तीर्थों में नहीं जाते तो स्वयं वे भी इनके महत्व को जान पाते और रामअवतारजी के योगदान के बिना हम और आप इनके बारे में जान पाते।

इस तरह तीर्थ स्थलों की एक सतत परंपरा हम भारतीयों को एक सूत्र में बांधे  हुए  है । ये एक बड़ा तथ्य और सत्य है कि काल के विभिन्न खंडों में इन स्थानों के बारे में जागरुकता कभी कम हो जाती है कभी बढ़ जाती है पर ये अब तक लुप्त नहीं हुए हैं क्योंकि पूर्वजों की यादों  के सहारे विभिन्न पीढ़ियों के माध्यम से अब तक यहां पूजन का क्रम चलता रहा है।

      इस तरह इन स्थानों की स्मृति के सहारे हम इन तीर्थों का प्रामाणिक जान सकते हैं। जो स्थान कम से कम दो हजार साल से तीर्थ हैं वे दो हजार साल से पहले भी तीर्थ रहे होंगे,  इसका आकलन कर सकते हैं। 

   हर किसी को इन चार कालखंडों में  एक  अ द्भुत  समानता, मूल्यों के टकराहट, जीवन शैली में विचलन और  एक  दूसरे के  बीच सांस्कृतिक संघर्ष को लेकर देखने को मिलेगी। इन सबका विवेचन करेंगे तभी आप समझ पाएंगे कि रामजी और उनके स्थल किस तरह अलग अलग कालखंडों में प्रासंगिक बने रहे हैं और क्यों इनकी रक्षा होती रही है।  अभी के समय में हमारा दायित्व बनता है कि हम इन्हें विकसित करें और यहां आकर उस स्पंदन से जुड़े जो हमारे दिल को हर पल धड़काते रहता है।

  हर किसी को नहीं मिलती रामजी की कृपा

  आपके अंदर दिल है,  जो धड़क रहा है जब तक यह स्पंदित रहेगा तभी तक आपका जीवन है। लेकिन आप में से हर किसी का दिल रामजी के लिए नहीं धड़कता।

   हरि अनंत हरि कथा अनंता। रामजी के लिए उन्हीं का हृदय स्पंदित होगा जो रामजी से जुड़े हैं । राम जी के वनगमन स्थल को प्रामाणिक वही देख पाएंगे जिन पर रामजी की कृपा होगी। इनके दर्शन के लिए, संरक्षण के लिए वही आगे आएंगे जिनकी सेवा रामजी लेना चाहेंगे।

यह सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता।

रामजी हर किसी की सेवा नहीं लेते। लेकिन जिसकी सेवा लेते हैं उसके इहलोक और परलोक दोनों को तार देते हैं। इसलिए अपने अंतर्मन में झांकिए और इन स्थलों को देखने का प्रयास कीजिए।

ये ना केवल आपको सत्य और वास्तविक स्थान लगेंगे बल्कि इन स्थलों से जुड़ी मान्यता को मानकर जब आप यहां आकर कुछ इच्छा रखेंगे तो आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी।

राम अवतार ने बचपन में रामजी के वनगमन प्रसंग को सुन कर आंसू बहाए । वन गमन की कथा सुनकर फूट फूट कर रोए । रामजी ने बचपन में ही ऐसे बीज बो दिए उनके मन में कि जवानी से लेकर अब 71 वर्ष से अधिक की आयु में भी इन वनों में भटक रहे हैं।

जवानी में इन्हें खोजने के लिए गए। जवानी अधेड़ावस्था में बदल गई और जब ये एकसूत्र में बंध गए तो अब इन्हें विकसित करने के लिए बार बार जा रहे हैं।

रामजी तो 14 वर्ष के वनवास पर गए लेकिन रामअवतार का संपूर्ण जीवन खंड वनवास में बीत रहा है। एक बार की यात्रा में दो से ढाई महीने लग जाते हैं। घर- परिवार, पत्नी बाल- बच्चों का मोह छोड़ कर लगातार चल रहे हैं किसके लिए…………….

राम ने वनवास माता की इच्छा और पिता के आदेश पर लिया था लेकिन रामअवतार स्वयं की इच्छा पर वनों में आए हैं।

इसलिए चलना पड़ रहा है लगातार..

क्या मिला आज तक……….

इससे बेहतर सवाल है क्या नहीं मिला आज तक…

भारत सरकार के आयकर विभाग में नौकरी कर हंस के समान निर्द्वंद्व विचरण कर रहे हैं राम राज्य में।

भरा पूरा परिवार है। एक बेटी एक बेटा ।  सब अपने पर सक्षम , आत्म निर्भर। पिता के सहारे या पैतृक संपत्ति की लालसा किसी के मन में नहीं। वंश परंपरा आगे बढ़ाने के लिए तीसरी पीढ़ी की संतानें आ चुकी हैं परिवार में।

डॉ रामअवतार की विदेश यात्रा

रामजी ने वन वन भटकाया तो देश विदेश घूमने का मौका भी दिया। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस , जर्मनी, स्विटजरलैंड, नीदरलैंड, बैल्जियम, सिंगापुर और इंडोनेशिया जैसे अनेक देशों में आप विशेष आमंत्रण पर श्री राम की यात्राओं पर शोध पत्र प्रस्तुत कर चुके हैं ।

गांव से लेकर नगर तक प्रान्त से लेकर राजधानी तक और स्वदेश से लेकर विदेश तक जिधर निकल जाएं रामअवतार के चरणों की धूलि लेने वालों की कतार लग जाती है।

क्या चाहिए जीवन में और।

जो तन है, वो राम के काम में लगा है । जो मन है वो श्री राम चरणों में दृढ़ है।

भरपेट भोजन मिलता है । दिन भर देह से कस कर काम लेते हैं और रात को अच्छी नींद आती है।

दवा के सहारे और कुर्सी पर बैठे या बिस्तर पर लेटे भविष्य की चिंताएं नहीं सताती।

और क्या चाहिए जीवन में……….

कौन हैं श्री राम वनगमन पथ यात्रा के सहयोगी

राम अवतारजी की वनगमन यात्रा अब लगभग चालीस साल पुरानी हो चुकी है। इन चार दशकों के यात्रा क्रम में अनेक सहयात्री मिले हैं । सहयोगी बने हैं। कुछ आरंभ से आज तक साथ हैं। कुछ यात्री बदल गए। कुछ के बाल बच्चे अब इस यात्रा में शामिल हैं। लोग यथासंभव सहयोग दे रहे हैं।

विशेष रूप से  दूर दराज के  गांवों, घने जंगलों में उन स्थानों के सहयात्री जिन्होंने रामजी के आने की स्मृति अपने स्थल पर बनाए रखी है वे विशेष धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि उन्हीं के सक्रिय सहयोग से एक बार फिर इन्हें विकसित किया जा रहा है।

  संभव है आपके आसपास या आपके गृहप्रान्त में , गांव में रामजी का कोई स्थल हो जिनकी याद अभी भी आपके या परिचितों के मन में बसी हो। ऐसे अज्ञात स्थान की खोज जारी है। जिनकी पहचान और पुष्टि हो चुकी है उनके विकास का काम जारी है।

कितनी बार हो चुकी है अयोध्या से रामेश्वरम यात्रा ?

अयोध्याजी से रामेश्वरम की यात्रा एक बार नहीं अनेकों बार हो चुकी है। सबसे ताजा यात्रा वर्ष 2018 में दिल्ली से 13 अक्टूबर और अयोध्याजी से 14 अक्टूबर को   शुरु  हुई  और लगातार चलते हुए रामेश्वरम तक की यात्रा सकुशल संपन्न होकर वापस उनतीस दिसंबर को दिल्ली वापस लौटी।

इन तीर्थों के विकास और प्रचार के लिए न्यास का गठन

  श्री राम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास के माध्यम से डॉ राम अवतार इन स्थानों  के प्रचार प्र सार  में लगे  हैं।  इस न्यास का गठन 1997 में हुआ था।  अपने जन्म काल  से लेकर अबतक लगातार न्यास राम जी के तीर्थों के संरक्षण और विकास तथा रामजी की संस्कृति  के  प्रसार  में  लगा  हु आ है। इस न्यास के बारे में विस्तृत जानकारी वेबसाईट

www.shriramvanyatra.com 

www.shriramvanyatra.org

के माध्यम से ली जा सकती है।

यदि आप अपना सहयोग न्यास को दे सकें तो भारतीय संस्कृति के उत्थान में यह एक बड़ा सहयोग होगा।

न्यास का पता है

श्री राम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास

चित्रकूट , बी 945, एम आई जी फ्लैट्स,

पूर्वी लोनी रोड, दिल्ली 110093

मोबाइल संपर्क 09868364356. 08920301889